भारत के लोकसभा चुनाव में आजकल इस बात पर बहुत बहस है कि मुसलमान किसका साथ देंगे. जब कोई संप्रदाय, धर्म या बिरादरी चुनावों में किसी का साथ देती है, तो उसकी कुछ उम्मीदें और तमन्नाएं होती हैं.
तो मुसलमान को क्या चाहिए? वो किस बुनियाद पर ये फ़ैसला करते हैं कि किसका साथ दें?
सालों पहले मेरे एक बुज़ुर्ग कहा करते थे कि, "मैंने भारतीय मुसलमान को कभी कोई युनिवर्सिटी, स्कूल या कॉलेज माँगते हुए नहीं देखा, कभी न ही वो अपने इलाक़े में अस्पताल के लिए आंदोलन चलाते हैं और न ही बिजली पानी के लिए, वो जानवरों तक का अस्पताल नहीं माँगते. उन्हें चाहिए तो बस एक चीज़. लाउडस्पीकर पर मस्जिद से अज़ान देने की इजाज़त, जिसपर पर अक्सर सांप्रदायिक रुप से संवेदनशील शहरों में पाबंदी लगा दी जाती थी."
मेरे ख़्याल में बुनियादी तौर पर यह बात अब भी सच है. चाहे लाउडस्पीकर अब मुद्दा न हो, लेकिन मुसलमान अब भी अतीत में ही उलझे हुए हैं. भारत में तथाकथित सेक्यूलर पार्टियों को वोट देते हैं, सुरक्षा के नाम पर उनके हाथों ब्लैकमेल होते हैं, पाकिस्तान में शरीयत को लागू करने के लिए जान देते हैं, ऐसा क्यों है कि इसके सिवा हमें और कुछ नहीं चाहिए?
सुहैल हलीम
http://www.bbc.co.uk/blogs/hindi/2009/04/post-2.html
Sunday, July 11, 2010
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